गोट विलेज – 8500 फीटऊंचाई पर्यावरण संवर्धन गांवो से शहेर की ओर सब भाग रहे है. उनको कैसे रोके, रोकने का एक अनुठा प्रयास उतराखंडमें‘ग्रीन पिपल’नामक संगठन कर रहा है.
मसूरी से आगे हिमालय में गॉट विलेज7,700 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। हालांकि ये कोई गांव है, लेकिन एक गांव होता जा रहा है। दूर से बहूत खूबसूरत दिखते ए मकान उत्तराखंड के हजार साल पुराने कोटी बनाल स्टाईल से बनाये गये हे.
हिमालय भूकंप के खतरे में पहले से ही कर रहे हैं। ईस के सामने ए बांधकाम शैली बहुत ही टिकाउ साबित हो रही है. हिमालयमें लकडी की कोई कमी नहीं है, ईसलिये मकान बांधकाममे लकडी का ज्यादा ईस्तेमाल होता है. जेसे की ईस मकान की छते लकडे की है. उसके उपर स्थानिक पथ्थर रखे गये है.
घरों के बीच खाली स्थान कृषि प्रयोगों हो रहे हे. छोटे उद्यान बने हुए है. पहाडी ईलाके में सपाट जमीन प्राप्त करना कठिन है। जो थोडी-बहुत सपाट जमीन हे, उसे ठीक कर के उसपर कृषि हो रही हे.
बीच में सब से ज्यादा आकर्षक दिखने वाला मकान जैसे ग्लास-हाउस जैसा लगता हे. क्यांको उसकी चारो दिवालो पर बडी खिडकीया है, छत पर पारदर्शक एक्रेलिक लगाया गया है. ईसलीय ठंडी हवा चलती रहेती है ओर, सीधा प्रकाश आता रहेता हे.
पथ्थर समायोजन करके एक मकान से दूसरे कोटेज तक जाने का रास्ता तैयार कीया गया है. यहां पर भूमि के प्रत्येक भाग का समुचित उपयोग पर अपना ध्यान केंद्रित रखा है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ के विषय इस समय “‘ विश्व पर्यावरण दिवस के लिए प्रकृति के साथ कनेक्ट में रखा है। और यह यहाँ कुछ एैसा ही हो रहा है।
गांव के लोग काम के लीये शहेर की ओर दोडते हे. शहेर में जा कर काम मिलेगा ये विश्वास कुछ हद तक सही है, लेकिन मूल रूप से शहर के लिए ग्रामीण पलायन की समस्या का समाधान नहीं होता। भारत गांवों में लोगों होना चाहिए हम देश में रहना चाहते हैं और गांव कहा जाता है कहा जाता है। लेकिन यह पसंद नहीं है।
तो क्या करें?
पूरे देश की समस्या रोका नहीं जा सकता है. लेकिन उतराखंड के कुछ युवाओने ईकठ्ठा होकर एक विचार का शुभारंभ किया और लागू किया। युवा समूह का ईस प्रयास का नाम “ग्रीन पिपल” है।
उत्तराखंड बड़ा हिस्सा हिमालय की ढलानों पर स्थित है। गांवों और शहरों पर झुकाव बसे हैं। लेकिन जो खंडहर में तब्दील कर दिया गया है, कई गांवों वहाँ। क्योंकि लोग शहर का काम मामलों की तलाश में वहाँ जा रहे हैं। यह भी शहर में एक वेटर के रूप में एक नौकरी पाने के लिए जा रहा चाहिए, लेकिन पिता-दादा के समय की खेती में, पशु का पालन नहीं करते।
गांव में रहकर युवा क्या करे? नोकरी नहीं हे, कृषि की पेदाश की किंमत नहीं मीलती. तो क्या करे. तीसरे सुविधा सड़क-सड़क पर्वत क्षेत्र तक सीमित है। यानी युवा लोगों को गांवों छोड़ने देहरादून, हरिद्वार, मसूरी की ओर भाग गया कर रहे हैं।
मनोबल बढाना हे
टीम ग्रीन उन्हें रोकने के लिए काम कर रही हे। यहां गांववालो ओर युवाओ का मनोबल बढाने का काम कीया जाता है. बकरी याने गोट की यहां बडी तादात हे. बकरी ही यहां की पहेचान भी हे. ईसलिये ईस प्रयास को गोट विलेज याने बकरी गांव नाम दिया गया है. यहां पर होती पेदावर को बकरीछाप नाम दे कर बेचा जाता है.
यहां के गांव भी अनोखे है. यहां पर रास्ता, चोक, स्ट्रीटलाईट, वाहनो की आवा-जाही वगेरे जैसा गांव नहीं होता. ढलान पर कूछेक मकान, वहां तक जाने का छोटा सा रास्ता यही यहां के गांव है.
ईन्ही तकलिफो के बीच ग्रीन पिपलने यहां पर एक ढांचा बनाया है. कुछेक मकान है, रहेने की जगह है, खाने की सुविधा है. ईस को गोट विलेज नाम दिया गया है. लोग यहां पर आये, रहे ओर अहां की परिस्थिति समजे यही मूल उद्देश है.
आसपास के गांव के खेडूत ओर गोट विलेज की छोटी सी जगह में जो भी पेदावर होती है वो थोडे नीचे रहेते गांव लेसर में एक्ठी की जाती है. वहां से उसको शहेरेमें भेजा जाता है, ओर लोग खरीद भी शकते है.
ये सभी पेदावर उच्च पोषक मूल्यवाली होती है. ईसलिये वपराशकर्ता को आकर्षित करती है. दूसरी ओर बहुत सारे युवा अब शहेर जाने की बजाय ग्रीन पिपल की राह पर चलना पसंद करने लगे है. यानी के प्रयास के अच्छे फल मिलने शरृ हो गयै है.
मसूरी से आगे पंतवारी नामना बडा गांव है. वहां से आगे लेसर गांव. यहां से आगे नाग टिब्बा ट्रेक है(शिखर को गढवाली में टिब्बा कहेते हे). हिमालय का वो जाना-माना ट्रेक है. उसके रास्ते में ही ये गोट विलेज 8 हजार से ज्यादा फीट की ऊंचाई पर बनाया गया है.
हिमालय तो वैसे बहुत ऊंचा है, लेकिन ये इलाका निचले हिमालय का हिस्सा हैं। नाग टिब्बा लोअर हिमालय पर्वत श्रृंखला की सबसे ऊंची चोटी है. दस हजार फीट पर यहां झंडी नामका शिखर है. जो नियमित ट्रेकिंग करतै है, वे वहां पर जाते रहेते है.
गोट गांव बिना रोड के मंझिल जैसा हे. गांव जगह है जहाँ आप सिर्फ पैदल जा सकते हैं. गोट विलेज जाने वाले सभी को टेक्सी सै लेसर गांव तक जाना होता है. वहां से गोट विलेज का मददगार आप को लेने आता है. उसके पीछे चलते-चढते जाईए..
हालांकी रास्ता 2.5 किलोमीटर ही लंबा है, पर ऊंचाई की वजह से कठीन लगता है ओर 2-3 घंटे चढाई चलती रहेती है.
हां, अगर आप के साथ बहुत ज्यादा सामन हे तो आप को खच्चर की मदद मील शकती है. दूसरा अच्छा विकल्प यै हे की आप, सामान पंतवारी गांव में गोट विलेज का एक ओफिस है, वहां पर रख शकते है. उपर कम से कम सामान ले कर जाने से मजा में जरा भी कटोती नहीं होती.
बिजली है, फीर भी नहीं हे
यहां पर बिजली नहीं हे. कोटेज में आप को मोमबत्ती से काम चलाना होता है. सोलार पावर हे, जो रसोईघर के लीये हे. यहां आकर भी अगर आप मोबाईल फोन के बीना रह नहीं शकते तो रसोईघरमें चार्जिंग का एक पोईन्ट है.
हालाकीं यहां पर आप को लाईट की कोई जरृर ही नहीं है. दूसरी ओर हिमालय के बदलते हवामान की वजह से कभी भी आकाशी बिजली देखने को मील शकती है, बारीश भी कभी भी आ शकती है.
यहाँ माहौल शांत है, दिन शांत ओर रात अधिक शांत होती है. तो भी सुन सकते हैं हवा की आवाज. आकाशी गडगडाहट भी सुनाई देती है. कोई आश्चर्य नहीं कि वे खुद को दूसरी दुनिया मेें पहोंच गये ऐसा मान सकते है. हिमालय की गोद में यहां शांति ओर सुकुन के सिवा ओर कुछ फील नहीं होता.
आप भी जा शकते है, काम कर शकते है
जिसको भी पर्यावरण के लीये कुछ करने में रृची है, वे सब लोग यहां पर आ शकते है. यहां पर तरह तरह के काम हे. स्वयंसेवक बनके वो काम कीये जा शकते है. उसके लीये ग्रीन पीपल को संपर्क करना होगा.
यहां सभी चीजे स्थानिक ही है. सब्जिया आसपास में पक रही है. ईस लीये ए स्थल एग्रो-पर्यटन है, पर्यावरण पर्यटन है, गांव पर्यटन भी है.पर्यावरण ओर पर्यटन दोनो को यहां जोडा गया है. पेड पौंधे लगाना, जंगल को बचाये रखना, नदी-झिल को संभालना ये तो पर्यावरण संरक्षण है ही, पर यहां पर गोट विलेज में जो हो रहा है, वो भी पर्यावरण संरक्षण ही है.
Contact – http://www.grppl.in/
http://thegoatvillage.com/
+91-9560399005
+91-8476033336
thegoatvillages@gmail.com